परम्परागत ढंग से आज से शुरू होगा सात दिन चलने वाला 630वा उर्स
देश के बिगडे माहौल में इंसानियत के हो रहे कत्लेआम और मानवीय आदर्शो की लुटती गरिमा के विरूद्ध कौमी एकता का संदेश देने के लिए समय समय पर हर युग और हर काल मे महापुरूषों ने धरती पर अवतार लिया है जिन्होंने अपने ज्ञान गंगा के बेग से न सिर्फ जाति पांति भेद भाव की संकीर्णता भरी दीवारों को तोडा है बल्कि समुचित दुनिया को आपसी भाई चारगी व एकजहती का संदेश भी दिया है। संत रविदास कबीर नानक और गोविन्द साहब के साथ सै0 मखदूम अशरफ सिमनानी भी उन्हें संत परम्परा में एक हैं। जिन्होने हिन्दुस्तान से बाहर सिमनानी की सरजमी पर जन्म लेकर जीवन के अंतिम क्षण तक किछौछा की धरती से मानवता का संदेश विखेरा। कल बुधवार से उनके आस्ताने पर 630वें उर्स का शुभारम्भ हो रहा है जो पूरे सात दिन तक चलेगा। इस दौरान तमाम खास कार्यक्रम आयोजित होगा। हालांकि आज देर शाम दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री जफर मसूद किछौछवी ने समारोह पूर्वक फीता काट कर उद्घाटन की औपचारिकता पूर्ण कर दी।
फैजाबाद आजमगढ राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित बसखारी बाजार से लगभग तीन किलोमीटर दूरी पर स्थित रसूलपुर में स्थित यह दरगाह आज भारत ही नहीं अपितु दुनिया के तमाम देशों में मसहूर हैं। जहां प्रख्यात सूफी संत हजरत मखदूम अशरफ जहांगीर सिमनानी का आस्ताना यानि उनके समाधि स्थित हैं। उसी की जियारत करने के लिए देश के आलावा विदेशों से लोग भारी तादात में आते है। यहां साल में दो बार उर्स और अगहनिया मेला लगता है। संयोग से इस बार दोनो मेला एक साथ पड रहा है। यहां दरगाह शरीफ के चारो ओर एक गोल तालाब है जिसके पवित्र जल को नीर शरीफ कहा जाता है। इसी तालाब के मध्य किला नुमा गोल चहर दीवारी है जो लगभग 40 फिट ऊची है। इसी किला नुमा स्थान के मध्य मखदूम साहब का रौजा-ए-मुबारक स्थल हैं जो एक छोटे से द्वीप की परिकल्पना को साकार करता है। हालांकि शहरों की चकाचैध से दूर ग्रामीण इलाके में होने के नाते इस स्थान का वह विकास नहीं हो पाया जो होना चाहिए था। लेकिन यहां करोडों लोगों की आस्था जुडी हुई है। जिसके चलते यहां की अव्यवस्था को भी लोग सहर्ष स्वीकार करने के लिए तैयार रहते है।
हजरत मखदूम साहब के बारे में मौजूद दस्तावेजों के अनुसार उनका जन्म मौजूदा समय में इरान के सिमनान नामक उस कस्बे में पिता सै0 इब्राहिम और माता खदीजा की संतान के रूप में हुआ था जिसे तत्कालीन सुल्तान ताजूद्दीन ने 300 हिजरी के अंत में अपने राज्य की राजधानी बनाया था। माता पिता से मिले संस्कारों ने अल्प समय में ही बाबा मखदूम साहब को ज्ञानवान बना दिया। जिसका विस्तार करने के लिए वे भारत आये और फिर यही के होकर रह गये। बताते है कि उन्होंने दुनिया को नई दिशा देने के लिए बादशाहद को भी ठोकर मार दी थी। भारत मंे आने के बाद देश के विभिन्न हिस्सो में रह कर लोगो को उपदेश देते हुए जीवन के अंतिम क्षण में वे किछौछा आये जहां से उन्होंने मानवतावाद की बीजा रोपण किया। उनके द्वारा स्थापित भाईचारे और प्रेम मोहब्बत का बिरवा आज बिशाल बट वृक्ष का रूप ले चुका है। जाति धर्म और सम्प्रदायवाद की ऊची हो चली संक्रीर्णता भरी दीवार को उन्होंने आध्यामिक ज्ञान गंगा के बेग से धराशायी कर समूची मानवता को एकजुटता का संदेश दिया। जो आज भारत ही नहीं विदेशों मे भी गूज रहा है। इस उर्स के मौके पर भारत के कोने कोने से तमाम जायरीन तो आते ही है विदेशों से भी यहां पहुच कर लोग श्रद्धानवत होते है। इस क्रम में आज देर शाम ही किछौछा व आसपास का परिसर श्रद्धालुओं से खचाखच भर चुका है। प्रस्तुति- घनश्याम भारतीय
0 comments:
Post a Comment